आदि शंकराचार्य की पराजय तथा वज्रशुचिकोपनिषत् की रचना
सामान्यतः ऐसी मान्यता है की जगतगुरु भगवान् आदि शंकर दिग्विजय रथ पर आसीन होकर समस्त मत संप्रदायों को शास्त्रार्थ रूपी युद्ध में पराजित किया और अद्वैत मत की कीर्ति पताका समूचे राष्ट्र में फहरा कर बिखरे भारतीय वैदिक धर्म को एक सूत्र में पिरो दिया। किन्तु , हिमालय के नाथ, सिद्धादि संप्रदायानुयायी, आदि शंकर के सर्वथा शास्त्रार्थ विजय की बात स्वीकार नहीं करते। वो आदि शंकर के अद्वैत मत के पराजय की कहानी सुनाते है। वो स्मार्त ग्रंथ ' शंकर दिग्विजय ' में वर्णित " शंकर ~ कापालिक द्वंद " से एकदम विपरीत वृतांत प्रस्तुत करते हैं। आइए आज हिमालय के झरोखों से गोरक्षसिद्धांतपद्धति/ गोरक्षसिद्धांतसंग्रह में वर्णित आदि शंकराचार्य की पराजय का दृष्टांत देखते है: एक बार आदि शंकराचार्य अपने चार शिष्य के साथ नदी तट पर स्थित थे । उस जगह पर एक कापालिक आदि शंकराचार्य के समीप आ कर बोलता है - " भो! तुम तो सन्यासी हो, मित्र और शत्रु को समान भाव से देखते हो , सुख और दुख आदि के द्वन्द्वों से रहित हो, मेरा ये अभिप्राय है की मै यदि मैं तुम्हारा शिर काट कर भैरव को चढ़ा दू तो मेर...