द्वैताद्वैतविलक्षणतावाद

       " यदि ब्रह्माद्वैतमस्ति तर्हि द्वैतं कुत आगतम् ?" 

अगर यथार्थ ब्रह्माद्वैत ही है तो द्वैत कहा से आया? ऐसे तार्किक प्रश्न हमे नाथ सम्प्रादायान्तर्गत शास्त्रों में देखने को मिल जाते है। सामान्य जन समूह  नाथ दर्शन व अन्य हिमालई दर्शन के संबंध में अल्पज्ञ है। इस कारण से वर्तमान समय में सनातन धर्म की परिभाषिक परिधि कुछ सिमट सी गई है। कितनो लोग आज द्वैत अद्वैत ; साकार निराकार ; आदि के वाद विवाद में ही उलझे दिखाई पड़ते है। इतिहास में जब एक ओर सांप्रदायिकता और दर्शनिक मतभेद जटिल हो रहे थे तब नाथों और महासिद्धों ने समग्र चिंतन, विधा और दर्शन प्रस्तुत किया।आइए आज हिमालय के झरोखों से परमतत्व की व्याख्या देखते है।

हालांकि गोरक्ष के सिद्धांत पर शांकरमत की छाप तो पड़ी है, किन्तु विविध स्थानों पर अद्वैतवाद का खण्डन भी हुआ है। नाथों का परमपद अद्वैत और द्वैत से परे का है।अन्य सिद्धांतो पर प्रकाश डालने से स्पष्ट होता है की नाथ वस्तुत: कश्मीर शैव त्रिक दर्शन (प्रत्यभिज्ञा)से ज्यादा प्रभावित थे।

अगर ब्रह्माद्वैत ही सत्य है तो द्वैत कहा से आया? गोरक्षसिद्धान्तसंग्रह में उक्त है- 

" यदा मायाकल्पितमिति वदेयुस्तर्हि तान् वदन्तौ वयमवाचोऽक्रियांश्च कर्म तत् किमिति चेदुच्यते?" अद्वैतं तु निष्क्रियादित्याग्यास्ति । अतः कस्यापि वस्तुनो भोगोऽपि युष्माभिर्न कर्तव्य इत्याद्यनेकविधिभिरद्वैतखण्डनं करिष्याम:। 

 इस प्रश्न के उत्तर में अगर अद्वैतवादी कहता है की "माया" कल्पित है तो  हम इस प्रकार कहने वाले को अवाच (मौन) और निष्क्रिय कर देंगे। तब वह क्या है? अद्वैत तो निष्क्रियता आदि  गुणसम्पन्न त्यागी है । क्योंकि तुम(अद्वैत) लोगो को किसी भी वस्तु का भोग नही करना चाहिए? इस प्रकार से हम(नाथ) अद्वैतपरक विधि वाक्यों द्वारा अद्वैतवाद का खण्डन कर देगें।

आगे उक्त है - 

"महासिद्धैरक्तं यदद्वैताद्वैतविवर्जितं पदं निश्चलं दृश्यते तदैवसम्यगित्यभ्युपगमिष्याम:"

महासिद्धों ने कहा है की द्वैत अद्वैत विवर्जित (विलक्षण) से निश्चल पद जो दृष्टिगत होता है वही परम् सत्य है और नाथ उसी को प्राप्त करेंगे।

आगे इसी ग्रंथ में योगियों द्वारा आदि शंकराचार्य की पराजय की कथा का भी उल्लेख है,कभी उस विस्तार से चर्चा करेंगे। 

अवधूत गीता में भी द्वैताद्वैतविलक्षणता  प्रतिपाद्य है- 

"अद्वैतं केचिदिच्छन्ति द्वैतमिच्छन्ति चापरे।                                    समं तत्वं न विन्दन्ति द्वैताद्वैतविलक्षणम्।।" 

 नाथों का परमपद अद्वैत, द्वैत और ब्रह्मा विष्णु सदाशिव से भी परे का है । साकरवाद और निराकारवाद का से भी परे का है । गोरक्षोपनिषत् में इसका तार्किक निरूपण कुछ इस प्रकार किया गया है:

" गोरक्षनाथ उवाच । आदि अनादि महानन्दरूप निराकार साकार वर्जित अचिन्त्य कोई पदार्थ था तांकु हे देवि मुख्य कर्ता जानियै क्यों कि निराकार कर्ता होय तौ आकार इच्छा धारिबे मैं विरुद्ध आवे है । साकार करता होय तौ साकार को व्यापकता नहीं है। यह विरुद्ध आवै है । तातैं करता ओही है जो द्वैताद्वैत रहित अनिर्वचनीय नथा सदानन्द स्वरूप सोही आजे कुं वक्ष्यमाण है। इह मार्ग मै देवता कोन है यह आशंका वारनै कहै हैं । अद्वैतोपरि ममहानन्द देवता । अद्वैत ऊपर भयो तब द्वैत ऊपर तौ स्वतः भयो ॥ इह प्रकार अहं कर्त्ता सिद्ध तूं जान ञ्छह करता अपनी इच्छा शक्ति प्रगट करी ।ताकरि पीछे पिण्ड ब्रह्माण्ड  प्रकटाभवत्  तिनमै अव्यक्त निर्गुन स्वरूप सों व्यापकभयो "

संक्षिप्त में -- जो परमपद है वो आदि अनादि,निराकार और साकार से वर्जित, अचिंत्य है। क्योंकि अगर वह साकार होगा तो व्यापकता नही होगी ,जो की विरुद्ध है । और अगर निराकार है तो आकार धारण करने की इच्छा में विरुद्ध है। अत: वह इन दोनो के परे है। इस मार्ग (नाथ) में देवता (परमतत्व) अद्वैत से ऊपर हैं । और अद्वैत से भी भी ऊपर है तो द्वैत से स्वत: ही ऊपर हुआ।  

गोरक्षसिद्धांतसंग्रह में कहा गया है --

" अद्वैतोपरिवर्ति निराकारसाकारातीतनाथान्निराकार: ज्योतिर्नाथो    जात स्वत: साकारनाथो जातस्तदिच्छया सदाशिवो भैरवो जातस्ततश्च शक्तिभैरवी च जाता तस्माद्विष्णुर्जातस्तस्मात् ब्रह्मा जातस्तेन सर्वा सृष्टि उत्पन्ना" 

अर्थात् अद्वैत के ऊपर स्थित परात्पर परतत्त्व नाथ, साकार और निराकार से  परे हैं। उनसे ही निराकार ज्योतिनाथ प्रकट हुए है । उन निराकार ज्योतिनाथ से साकरनाथ । साकरनाथ की इच्छा से सदाशिव भैरव और भैरवी शक्ति का प्रदुर्भाव हुआ । भैरव भैरवी से विष्णु की उत्पत्ति हुई फिर उनसे ब्रह्मा जी की उत्पत्ति हुई जिनसे सारे जगत की उत्पत्ति है। 

शांकर मत के परात्पर निर्गुण निराकार अद्वैत ब्रह्म तत्व के सिंहासन से नाथ मत का परम तत्व पदच्युत प्रतीत होता है।

                             परात्पर नाथ तत्व  

                                       ⇓

                  निराकार ज्योतिस्वरूप नाथ तत्व

                                       ⇓

                             साकार नाथ तत्व 

                             ⇙               ⇘

                   सदाशिव भैरव     भैरवी शक्ति

                             ⇘               ⇙

                                   विष्णु 

                                      ⇓

                                    ब्रह्मा 

                                      ⇓

                                   जगत 


गोरक्ष सिद्धान्त संग्रह में आगे परात्पर नाथ तत्व के स्वरूप की बात हुई है। 

       "निर्गुणं वामभागे च सव्यभागेऽद्भुता निजा।                           मध्यभागे स्वयं पूर्णस्तस्मै नाथाय ते नमः।।" 

            " मुद्रा लुठन्ति पादाग्रे नाखाग्रे जीवजातय:।                                         मुक्तामुक्तगतेर्मुक्ता सर्वत्र रमते स्थिर:।।                                     वामभागे स्थित: शम्भो सव्ये  विष्णुस्तथैव च।                               मध्येनाथ: परं ज्योतिस्तज्ज्योतिर्मे तमोहरम् ।। "

      "नाकारोऽनादि रूपं थकार: स्थाप्यते सदा।                    भुवनत्रयमेवैक: श्री गोरक्ष नमोऽस्तुते।।"


अर्थात् : इनके बाएं ओर निर्गुण निराकार स्वरूप ब्रह्म और दाएं ओर अद्भुत निज शक्ति ( पराम्बा महामाया)  और मध्य में स्वयं पूर्ण अखण्ड, सर्वाधार, द्वंदातीत, द्वैताद्वैत विवर्जित श्री नाथ समासीन है।

नाथ जी के चरणदेश के नखाग्र में मुक्त सिद्धपुरुष और असंख्य जीवात्मा स्थित है, जो श्रीनाथ जी के ध्यान करते है और मुक्त अमुक्त दोनो गतियों से परे है और सर्वत्र विचरण करते है। जिनके वामभग में शंभु और दक्षिण भाग में विष्णु  इनके मध्यावस्थित तमापहरक श्रीनाथ स्वरूप महाज्योति है।

"ना" का अर्थ है अनादि और "" का अर्थ है भुवनत्रय को सदा स्थापित रखने वाला धर्म । (जैसे गोरख 'नाथ' ) श्री गोरक्ष को नमस्कार है।


इसके इतर नाथ मत ज्ञान-योग-समन्वयवाद भी प्रतिपादित करता है। जहां वेदांती योगमार्ग की उपेक्षा करके ज्ञान को ही सर्वश्रेष्ठ मानते है।वही नाथ मत योगमार्ग की सर्वश्रेष्ठता प्रतिपादित करते हुए भी; वेदांत मत का खण्डन करते हुए भी; दोनो की अनिवार्यता पर बल देता है। प्रश्न उठता है की यदि खड्ग खप्पर से ही विजय मिल जाती तो युद्ध में लड़ने से क्या?  [विना युद्धेन् वीर्येण कथं जयमवाप्नुयात् ?] अत: जिस प्रकार केवल तलवार प्राप्त कर, युद्ध न करने से विजय नही प्राप्त हो सकती उसी प्रकार केवल ज्ञान से योग के अभाव में मोक्ष की प्राप्ति नही हो सकती [तथा योगेन रहितं ज्ञानं मोक्षाय नो भवेत्]। कहीं किसी को ऐसा प्रतीत हो सकता है की गोरक्ष के मार्ग में भक्ति की उपेक्ष की हुई है(?) तो नाथ पंथी संत ज्ञानेश्वर की कृतियों में भक्ति की भी धारा दिखती है।

                 ।। श्री गुरु गोरक्षनाथो विजयतेतराम्।।


सन्दर्भ---

१. 'गोरक्षसिद्धान्तसंग्रह' संपादनकर्ता श्री जनार्दन शास्त्री  ‌‌  

२. "कौल ज्ञान निर्णय" व्याख्याकार प॰ श्यामाकान्त त्रिवेदी 

३. गोरक्षोपनिषत् 

४. सिद्ध सिद्धांत पद्धति 

५. "नाथ संप्रदाय" हजारी प्रसाद द्विवेदी









Comments

  1. अचिंत्य कैसे ? मनुष्य जीवन ईश्वर प्राप्ति के लिए नहीं हैं ?

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  2. निराकार जो सर्वव्यापक हैं उसको साकार की इच्छा कैसे ? कुछ समझ मे नही आया ?

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