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त्र्यक्ष गोरक्ष रक्ष माम्

।। अथ गोरक्षरक्षास्तोत्रम् ।। कर्मण्य करुणाकार, कर्णकुण्डलशोभित। कैलाशशिखरावास, त्र्यक्ष गोरक्ष रक्ष माम्।।१।। खेचर खेचरीनाथ, खेचरीज्ञानपारग। खगासन खमाधार, त्र्यक्ष गोरक्ष रक्ष माम्।।२।। गोपते हे गुणातीत, गोतीत गुरो गुणिन्। गुणगण्य गुणाधीश, त्र्यक्ष गोरक्ष रक्ष माम्।।३।। घोररूप घूर्णात्मन्, घटितपापमोचन। घोराघोरघनाघघ्न, त्र्यक्ष गोरक्ष रक्ष माम्।।४।। चारुचन्द्रकलायुक्त, चन्द्रार्धभालमण्डित। चैतन्य चिन्मयानन्द, त्र्यक्ष गोरक्ष रक्ष माम्।।५।। छायामायामलोच्छेदिन्, छद्मविचारछेदक। छेदितकर्णिकाकर्ण, त्र्यक्ष गोरक्ष रक्ष माम्।।६।। जितजन्मजराजाल, जालन्धरसुपूजित। जितेन्द्रिय जटाधारिन्, त्र्यक्ष गोरक्ष रक्ष माम्।।७।। झल्लरीमेखलाधर्तः, झङ्कारनादकारक । झञ्झानिलहिमासीन, त्र्यक्ष गोरक्ष रक्ष माम्।।८।। टङ्गभङ्गितटङ्कार, टीकिताम्नायनायक। टङ्किताहन्तनूकर्तः, त्र्यक्ष गोरक्ष रक्ष माम् ।।९।। ठवर्णरूप ठन्नाथ, ठकारशून्यरूपक। ठन्नादविलसत्मूर्धन्, त्र्यक्ष गोरक्ष रक्ष माम्।।१०।। ढाकाढक्केश्वरीनाथ, ढक्काढोलादिवादक। ढक्काकाशशब्दातीत, त्र्यक्ष गोरक्ष रक्ष माम् ।।११।। त्यागमूर्ते तपोनिष्ठ, तत्वज्ञ तमतारक । तन्त्र

आदि शंकराचार्य की पराजय तथा वज्रशुचिकोपनिषत् की रचना

 सामान्यतः ऐसी मान्यता  है की जगतगुरु भगवान् आदि शंकर  दिग्विजय रथ  पर आसीन होकर समस्त मत संप्रदायों को शास्त्रार्थ रूपी युद्ध में पराजित किया और अद्वैत मत की कीर्ति पताका समूचे राष्ट्र में फहरा कर बिखरे भारतीय वैदिक धर्म को एक सूत्र में पिरो दिया। किन्तु , हिमालय के नाथ, सिद्धादि संप्रदायानुयायी, आदि शंकर के सर्वथा शास्त्रार्थ विजय की बात स्वीकार नहीं करते। वो आदि शंकर के अद्वैत मत के पराजय की कहानी सुनाते है। वो स्मार्त ग्रंथ ' शंकर दिग्विजय ' में वर्णित " शंकर ~ कापालिक द्वंद "  से एकदम विपरीत वृतांत प्रस्तुत करते हैं। आइए आज हिमालय के झरोखों से गोरक्षसिद्धांतपद्धति/ गोरक्षसिद्धांतसंग्रह में वर्णित आदि शंकराचार्य की पराजय  का दृष्टांत देखते है:  एक बार आदि शंकराचार्य अपने चार शिष्य के साथ नदी तट पर स्थित थे । उस जगह पर एक कापालिक आदि शंकराचार्य के समीप आ कर बोलता है - " भो! तुम तो सन्यासी हो, मित्र और शत्रु को समान भाव से देखते हो , सुख और दुख आदि के द्वन्द्वों से रहित हो, मेरा ये अभिप्राय है की मै यदि मैं तुम्हारा शिर काट कर भैरव को चढ़ा दू तो मेरी प्रतिज्ञा

द्वैताद्वैतविलक्षणतावाद

        " यदि ब्रह्माद्वैतमस्ति तर्हि द्वैतं कुत आगतम् ?"  अगर यथार्थ ब्रह्माद्वैत ही है तो द्वैत कहा से आया? ऐसे तार्किक प्रश्न हमे नाथ सम्प्रादायान्तर्गत शास्त्रों में देखने को मिल जाते है। सामान्य जन समूह  नाथ दर्शन व अन्य हिमालई दर्शन के संबंध में अल्पज्ञ है। इस कारण से वर्तमान समय में सनातन धर्म की परिभाषिक परिधि कुछ सिमट सी गई है। कितनो लोग आज द्वैत अद्वैत ; साकार निराकार ; आदि के वाद विवाद में ही उलझे दिखाई पड़ते है। इतिहास में जब एक ओर सांप्रदायिकता और दर्शनिक मतभेद जटिल हो रहे थे तब नाथों और महासिद्धों ने समग्र चिंतन, विधा और दर्शन प्रस्तुत किया।आइए आज हिमालय के झरोखों से परमतत्व की व्याख्या देखते है। हालांकि गोरक्ष के सिद्धांत पर शांकरमत की छाप तो पड़ी है, किन्तु विविध स्थानों पर अद्वैतवाद का खण्डन भी हुआ है। नाथों का परमपद अद्वैत और द्वैत से परे का है।अन्य सिद्धांतो पर प्रकाश डालने से स्पष्ट होता है की नाथ वस्तुत: कश्मीर शैव त्रिक दर्शन (प्रत्यभिज्ञा)से ज्यादा प्रभावित थे। अगर ब्रह्माद्वैत ही सत्य है तो द्वैत कहा से आया? गोरक्षसिद्धान्तसंग्रह में उक्त है-  "

TRAMPLING OF HINDU GODS & GODDESSES : ESOTERICISM OR SECTARIANISM ?

It's is well known that Hindu gods are included in tantrik Buddhist pantheon. It is seen that at some places Hindu gods are given as humiliating roles to be trampled upon by Buddhistic god's. Today let's discuss on significance of such tantric arts, what was intention behind trampling of hindu dieties?how it should be interpreted? What is real reason behind those figures- esotericism or sectarianism? What does those art convey and signify? First of all let's look some examples of trampling of hindu dieties by Buddhist dietes: • Chakrasamvara trampling Bhairava and Kalaratri •Hevajra trampling Brahma,Indra,Vishnu&Shiva •Vajrabhairava trampling Shiva,Vishnu, IndraBrahma,Kartika,Chandra,Surya&Ganesh •Kalachakra trampling Kamadeva- Rati &Rudra-uma • Trailokyavijaya trampling Shiva-Parvati  • Vighnantak trampling Ganesha Now, Let see that what various people concluded from such iconography; Benoytosh Bhattacharjee writes " Buddhist attempted to exhibit the s

द्विबुद्धवाद की अंत्येष्टि

                    द्विबुद्धवाद की अंत्येष्टि  वेदागमिक हिंदू धर्म में भगवान् बुद्ध का क्या स्थान है ,इसको लेकर आज कल विभिन्न भ्रांतियां व्याप्त है। प्रश्न यह उठता है की पुराणों में वर्णित भगवान विष्णु का बुद्धावतार गौतम बुद्ध ही है या कोई और? पुरी पीठाधीश्वर शंकराचार्य मतावलंबियों के अनुसार "ब्राह्मण" बुद्ध ( विष्णु अवतार) गौतम बुद्ध से भिन्न है । उनके तर्क कुछ इस प्रकार है - १. भागवत पुराण में वर्णित है की बुद्ध माता अंजना के सुत थे ,जबकि गौतम बुद्ध की माता का नाम यह नही था। २. ब्राह्मण बुद्ध कीकट क्षेत्र (श्रीधरी टीकानुसार गया क्षेत्र ) में अवतीर्ण हुए, जबकि क्षत्रिय गौतम बुद्ध तो नेपाल मे हुए थे। अत: इस विचार के अनुसार विष्णु अवतार बुद्ध अलग है ऐतिहासिक गौतम बुद्ध से, इसी को मै "द्विबुद्धवाद" की संज्ञा देता हूं। द्विबुद्धवाद की पीछे की मंशा क्या थी? और इसका परिणाम क्या होगा? इन प्रश्नों पर हम आगे विस्तार से चर्चा करेंगे । द्विबुद्धवाद का खण्डन  १. नीलमत पुराण में नील कहते है की कलियुग में भगवान विष्णु जगतगुरु  बुद्ध के नाम से  अवतरित होंगे( "विष्णुर्देवो

VAJRAVARAHI :: BUDDHIST VARAHI

  The Buddhist Tantric Goddess Vajrayogni and his cult lowered in India between the tenth and twelfth centuries C.E .The Buddhist text talks about various sadhana of this goddess .Sadhana is a meditation and ritual text—literally, a "means of attainment" (sddhanam)—that centers upon a chosen deity, in this case, upon Vajrayogini or one of her various manifestations.Goddess Vajravarahi is one of the form/emanation/manifestation of Vajrayogni.The Guhyasamayasddhanam (GSS) is primary text which talk about her particularly in her form as Vajravarahi.  Who is Vajrayogini? The texts refer to her reverentially as a "blessed one" (bhagavati), as a "deity" (devata) or "goddess" (devi). She is divine in the sense that she embodies enlightenment; and as she is worshiped at the center of a mandala of other enlightened beings, the supreme focus of devotion, she has the status of a buddha. In the opening verse to the Vajravarahi Sadhana, the author salutes

WHO WAS KĀNHA-PĀ? VAJRAYANA MAHASIDDHA, NATH YOGI OR KAPALIKA?

Kanhapa (or Krsnacarya ), the 'Dark-Skinned One' (or the ' Dark Siddha ') is one of 84 Mahasiddhas of Tibbeten Buddhism . He is also known as  Kṛṣnapada, Kanhupada, Kanha-pa, Kanha, Acharya Charyapa, Kaniphanath, Kanari-nath, Kanupa,kanipa ...&more. Along with that  Kanhupada is considered as influential Yogi in the Hindu tradition of Nath Yogis ( Sàiva ) also. Both  Hindu &Buddhist tradition have their own 84 list of siddhas out of which many siddhas are common.Sahajanyana tradition of Bengal also includes him as masters. Today we will Closely examine mystery surrounding kanhupada & 'kapalik' angle in it. According to Buddhist tantric Lore,kanhpa    was initiated into the mandala of the deity Hevajra by his guru Jalandhara. Guru Jalandhar was also listed in Nathyoga tradition as a guru of kanhupada . Jalandhar was also known as hallikapada & hadipa .  According to CharyaacharyaNishchaya or    Charypada (Collection of poetry composed by 24 Va